हर वर्ष की भांति कल भी महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन पुरे देश में धूमधाम से मनाया गया. इसी अवसर पर कहीं स्वच्छ भारत का अभियान तो कही दहेज प्रथा के खिलाफ अभियान देखने और अख़बारों में पढ़ने को मिला. मगर देश में एक ऐसा भी जगह है, जहां इस अवसर पर देश में ही 47 साल पहले बने क़ानूनी प्रावधान को लागु करवाने की मांग को लेकर अभियान चलाया गया है. जी हाँ, हम उसी कानून की बात कर रहे है जिसके तहत अगर ठेका वर्कर रेगुलर वर्कर के बराबर काम करता है तो ठेका कानून के तहत “समान काम का सामान वेतन” का प्रावधान है. मगर पिछले 47 वर्षों में एक भी ईमानदार सरकार नहीं आयी, जो मजदूरों के इस कानून को लागु करवा सके.
समान काम का समान वेतन
जानकारी के अनुसार बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले के अमर शहीद खुदीराम बोस स्मारक स्थल से इसी मांग “समान काम समान वेतन” हेतु परिवर्तनकारी प्रारंभिक महासंघ के द्वारा पूरे बिहार भर के नियोजित शिक्षकों का हस्ताक्षर अभियान का शुरुआत किया गया. बिहार के नियोजित शिक्षक संघ के अनुसार इसमें संघों से ऊपर उठकर विभिन्न संघों के सदस्यों के साथ-साथ चौपाल के लोग सम्मिलित हुए. उन्होंने आगे कहा है कि कुछ संघ और भी हैं जो ऐसे कार्यों का खुलकर समर्थन करते हैं. साथ ही साथ संघ एकता के पक्षधर भी है और कुछ इसके विरोधी भी है. मगर हमे विरोधियों की ओर ध्यान देने की जरूरत नही है. बस हमे सोच के साथ आगे बढ़ना है.
यह अभियान जागरूकता के लिए बिलकुल सही है और हम भी इसका पूर्ण समर्थन करते हैं. बदलाव की शुरुआत भी जागरूकता बढ़ने से ही होगा. मगर शिक्षक नेताओं से यह भी आग्रह है कि इस लड़ाई के साथ ही साथ मजदूरों के हक के लिए बने 44 श्रम कानून की रक्षा के लिए भी खड़े हों. हमारी मांग तभी तक कोई फिर फार्म या कोर्ट सुनेगा, जब तक कानून है.
इसके बारे में पार्टी और जाति-धर्म से ऊपर उठकर सोचने की जरुरत है. कहावत सबने सुनी होगी, “भूखे भजन न हो गोपाला ले ले अपनी कंठी माला” और यह भूख सबको लगती है. भूख मिटने के लिए हम सब पहले मजदुर है. सोचियेगा.
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