आप सभी लोगों ने डिजिटल इंडिया का नाम सुना होगा. इसके लिए मोदी जी ने कैशलेश का नारा दिया, यानि नगद पैसे को बैंक में जमा कीजिये और ऑनलाइन पेमेंट कीजिये. अब ऑनलाइन पेमेंट के लिए सबको बैंक का खाता होना अनिवार्य है. अरे भाई बैंक में खाता होगा तभी तो इंडिया डिजिटल हो पायेगा. अब जब ज्यादातर लोगों ने बैंक में खाता खोलवा लिया तो बैंक ने मिनिमम बैलेंस के नाम पर पैनल्टी लगाना शुरू कर दी. बैंकर्स के सेमिनार में कर्मचारियों के वेतन कटौती का मुद्दा गरमाया.
बैंकर्स ने सेमिनार का आयोजन किया
अजब हाल है, पैसा माल्या को देकर भगाया और उसकी भरपाई उलटे उससे किया जा रहा है जिसके पैसे लेकर लुटेरा भाग गया. अब बैंक खाते में बैंको के द्वारा जो लूट की गई या की जा रही है. इससे तो मेरा भी कभी-कभी मन करता है कि अपना खाता ही बंद करवा लूं, शायद आप में से भी कुछ लोगों का लगता होगा या नहीं भी. अब नहीं बंद करवाने का कारण है मजबूरी. अब पूछियेगा की कैसी मज़बूरी? तो इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि बैंकिंग सेवा ने भले ही हमारे को खुशहाल न बना सका हो मगर सुविधाजनक तो जरूर बना दिया है.
तभी तो मेरा खाता मेरे गाँव में है और बिना बैंक गए आसानी से दिल्ली से ऑपरेट कर पा रहा हूँ. अब आप सोच रहे होंगे कि इतना कुछ आखिर बता क्यों रहा हूँ? वह इसलिए की शायद आपको यह लगता होगा या बताया गया होगा कि बैंकिंग या कोई भी सिस्टम ऑटोमेटिक काम करता है. इससे कोई नहीं इंकार नहीं कर सकता है, मगर यह सभी को पता है कि कम्प्यूटर के पास अपना दिमाग नहीं होता. उनके पीछे भी मानव का दिमाग ही काम करता है.
आज उसी बैंकिंग के पीछे कहिये या बैंक में काम करने वाले वाले कर्मचारियों के बारे में बात करना जरुरी हो गया है. ऐसा नहीं है कि बैंक ने केवल हमारे या आपके खाते में ही डाका डाला है. हमेशा से अन्य प्रबंधन की तरह बैंक भी अपने कर्मचारियों के ऊपर भी जुर्म ढाने ने भी पीछे नहीं है. अभी सोमवार को वी बैंकर्स एसोसिएशन ने समानता और बराबरी के हक़ के लिए सेमिनार का आयोजन किया. जिसमें बैंकर्स ने सरकार और बैंक प्रबंधन की कार्यप्रणाली पोल-पट्टी खोल कर रख दी.
बढ़ते एनपीए के लिए उच्चाधिकारी जिम्मेवार, कैसे?
उन्होंने सीधा आरोप लगाया कि बैंक के लगातार बढ़ रहे एनपीए खाते के लिए बैंक के साधारण अधिकारी या कर्मचारी जिम्मेवार नहीं है, बल्कि इन एनपीए खातों के तीन तिहाई ऋण उच्चाधिकारियों या फिर बोर्ड द्वारा पास किये गए है. उन्होंने मांग किया ही कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर सरकार का सीधा नियंत्रण है और बैंककर्मी भी सरकार के नीतियों के अनुपालन का काम कर रहें हैं. इसलिए बैंककर्मियों के वेतन निर्धारण, सेवा, छुटियों आदि पर वही मापदंड अपना चाहिए जो कि एक केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए है.
इस अधिवेशन में बैंककर्मियों ने क्षोभ व्यक्त किया कि बैंकों के लिए प्रतिनिधित्व करने वाले आईबीए अपनी सदस्य बैंकों से सहमति लेती है, मगर वही वार्ता ने शामिल यूएफबीयू के नेता बिना बैंक स्तर पर कार्यरत यूनियन से सहमति लिए ही वार्ता में भाग लेते हैं और मनमाना समझौता थोप देते हैं.
बैंकर्स के अधिवेशन में उठा कॉन्ट्रैक्ट कर्मियों की पक्का की मांग
इस अधिवेशन में सबसे मुख्य बात यह रही कि नेताओं ने ठेके पर काम करने वाले कैंटीन व् उच्चाधिकारीयों के ड्राइवर आदि कर्मियों को बैंक का कर्मचारी घोषित करने की मांग की और महिला बैंककर्मियों के नियुक्ति और स्थानांतरण में भारत सरकार के दिशा निर्देशों के अनुपालन लागु करने की मांग पर जोर दिया गया.
इस अधिवेशन के माध्यम से सरकार को आगाह करने की कोशिश की गई कि बैंककर्मियों को भी केंद्रीय कर्मचारियों के तरह वेतन आयोग के दायरे में लाया जाये, नहीं तो आर-पार का संघर्ष होगा. इसके लिए उनलोगों ने पांच सद्स्यीय संघर्ष समिति टीम का गठन भी कर लिया है. उन्होंने बताया कि बैंक अधिकारियों और कर्मचारियों के देर रात तक काम किये जाने की प्रबंधन की प्रवृति पर रोक लगाने के लिए उनको बैंककर्मियों की टोली क्षेत्रवार छापामार तरिके से ऐसी शाखाओं को निर्धारित समय पर बंद करवायेगी.
बैंककर्मियों के इस अधिवेशन को मुख्य रूप से वरिष्ठ बैंककर्मी नेता कमलेश चतुर्वेदी, आशीष मिश्रा, मनीष कुमार, सारांश श्रीवास्तव, अनुराग चंद्रा, मनोज त्रिपाठी, अशोक तिवारी, राहुल मिश्रा, सोम्या सिंह, कल्पना सिंह, कृतका टंडन इत्यादि दर्जनों नेताओं ने सम्बोधित किया.
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