नई दिल्ली: 29 जनवरी 2018 को बिहार नियोजित शिक्षक के समान वेतन के मामले की सुनवाई हुई. जानकारी के लिए बता दें कि विगत 31 अक्टूबर 2017 को पटना हाई कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए नियोजित शिक्षकों को 2009 से “समान काम का समान वेतन” देने का आर्डर दिया था. जिसको बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है.
बिहार नियोजित शिक्षक के समान वेतन
बिहार नियोजित शिक्षक के समान वेतन के बारे में आपलोगों को विभिन्न समाचार पोर्टल और न्यूज से लेकर शोशल मिडिया के द्वारा काफी जानकारी मिल चुकी होगी. मगर हम अपने ब्लॉग के माध्यम से पहले ही की तरह सभी तथ्यों का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहें है. उम्मीद करूंगा कि समय निकाल कर इसको पढ़ेंगे ही नहीं बल्कि अपनी टिप्पणी भी नीचे कमेंट बॉक्स में देंगे.
सबसे पहले हम यह जाने कि इस सुनवाई के बारे में प्रमुख समाचार पत्रों ने क्या कहा. इस सुनवाई को हिंदुस्तान ने खुशखबरी बताते हुए बिहार में शिक्षकों को एक समान वेतन मिलने की बात कही है. इस न्यूज पोर्टल ने यहां तक लिखा है कि माननीय कोर्ट ने एक समान वेतन देने के मामले में मुख्य सचिव की अध्यक्षता कमेटी बनाने का आदेश दिया और कहा कि कमेटी देखे की इन शिक्षकों को नियमितों के समान वेतन देने के लिए क्या कुछ और टेस्ट आदि लिए जा सकते हैं.
जबकि इसके उलट जागरण की खबर पढ़ें तो सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को पहली सुनवाई की और बिहार सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए पटना हाइकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से मना कर दिया है और साथ ही इस मामले में टीम गठित कर पूरी रिपोर्ट देने की बात कही है. वही नवभारत टाइम्स ने माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा “समान काम के लिए समान वेतन” के सिद्धांत के तहत टीचरों को राहत बताया है.
इसके बाद माननीय कोर्ट का आर्डर भी आ चूका है. इसको पूरा पढ़ने के बाद यही लगता है कि बिहार सरकार ने वित्तीय स्थिति का रोना रोकर माननीय कोर्ट का सिम्पथी लेने की कोशिश ही नहीं की अपितु इसमें कुछ हद तक सफल भी हो गए हैं. आइये एक बार इस आर्डर पर पहले नजर डालते हैं.
पटना हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से इनकार
ऐसे में समान काम के लिए समान वेतन न देना गैर संवैधानिक है. नियोजित शिक्षकों की ओर से कहा गया कि समान वेतन देने पर राज्य सरकार को 9,800 करोड़ रुपये अतिरिक्त आर्थिक भार आयेगा. साथ ही यह भी दलील दी गई कि टीचरों पर होने वाले खर्च में से 60 फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार देती है, जबकि राज्य सरकार केंद्र के फंड को भी खर्च नहीं कर पाती.
माननीय सर्वोच्य न्यायालय ने इसके साथ ही राज्य के चीफ सेक्रटरी लेबल के 3 अधिकारियों का एक कमिटी बनाकर उपरोक्त का विश्लेषण कर रिपोर्ट जमा करने का आदेश दिया है. इस कमेटी को सम्बंधित शिक्षक भी अपना लिखित सुझाव दे सकते हैं. इसमें केंद्र सरकार की राय लेने की बात भी कही गई है. इसके साथ ही कोर्ट को अगले सुनवाई 15 मार्च 2018 तक के लिए स्थगित कर दिया गया.
सभी तरह के अस्थायी कर्मचारी भी नियमित कर्मचारियों के समान ही वेतन पाने के हकदार हैं-SC
इस फैसले से एक तरफ नियोजित शिक्षकों में ख़ुशी की लहर दौर गई है. संघ के नेताओं ने इसको जीत का संकेत बताया है और हम भी इस बात से इंकार नहीं कर रहें हैं. खुद सुप्रीम कोर्ट ने 26 अक्टूबर 2016 यानी आज से लगभग 2 वर्ष पूर्व “सभी तरह के अस्थायी कर्मचारी भी नियमित कर्मचारियों के समान ही वेतन पाने के हकदार हैं”.
इसके साथ ही माननीय कोर्ट ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति कम पैसे में इच्छा से काम नहीं करता, बल्कि खुद की प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर इसलिए काम करता है ताकि अपने परिवार का पेट भर सके. क्योंकि वह जानता है कि अगर कम पैसे में काम स्वीकार नहीं किया तो उसकी मुश्किलें बढ़ जाएगी.
अब जबकि नियोजित शिक्षकों के इस लड़ाई में अब बिहार सरकार के साथ केंद्र सरकार को भी शामिल किया गया है तो यह जानना जरुरी हो गया है कि आखिर अभी तक का केंद्र सरकार का ठेका वर्कर के बारे क्या रुख रहा है. इसके लिए कुछ तथ्यों को जानना बहुत ही जरुरी है. पुरे देश में फिलहाल सार्वजनिक क्षेत्र में 50+ फीसदी और निजी क्षेत्र में 70+ फीसदी कर्मचारी ऐसे हैं, जोकि ठेके पर काम करते हैं.
जहां तक सरकारी विभागों का सवाल है तो “इंडियन स्टफिंग फेडरेशन” के रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी विभागों में 1 करोड़ 25 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनमें केवल 69 लाख कर्मचारी ठेके या संविदा पर कार्यरत हैं. केवल केंद्र सरकार का देखें तो केवल लाइसेंसी ठेकेदार द्वारा केंद्र सरकार के विभागों में ठेका वर्कर की संख्या लगभग 18.44 लाख है. (आंकड़ा 2012 के पार्लियामेंट प्रश्न पर आधारित). सरकार खुद मानती है कि इन ठेका मजदूरों या संविदाकर्मियों की हालत बेहद खराब है. ज्यादातर जगहों पर इन्हें सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन तक नहीं दिया जाता है.
जबकि ‘ठेका मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम- 1970’ की धारा 25 (5) (अ) के मुताबिक “यदि कोई मजदूर ठेकेदार द्वारा नियोजित और यदि वह प्रधान नियोक्ता के श्रमिक के समान काम करता है तो उस ठेका मजदुर का वेतन, छुट्टी, काम के घंटे, सेवा शर्त आदि वही होगा जो प्रधान नियोक्ता के मजदुर को मिलता है”. आज से लगभग 47 वर्ष पूर्व इस कानून को संसद में पारित किया गया था, मगर बहुत ही शर्म के साथ कहना पड़ रहा है कि अभी तक कोई भी ईमानदार सरकार सत्ता में नहीं आई, जो इसको लागु करवा सके.
वर्तमान की मोदी सरकार का मजदुर और आमजन विरोधी रवैया किसी से छुपा नहीं है. पुरे देश में पीपीपी के तहत निजीकरण युद्ध स्तर पर जारी ही नहीं बल्कि देश के मजदुर हित के लिए बने श्रम कानूनों में भी बदलाव करने जा रही है. इसके बारे में पढ़ें- मोदी सरकार पूर्वजों द्वारा बनवाये श्रम कानूनों को खत्म करने पर आमदा, क्यों.
खुद मैंने सन 2014 में केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाले पुरे देश के ठेका वर्कर के लिए जनहित याचिका दायर कर “समान काम का समान वेतन” को उठाया था. जिसमें सुनवाई के दौरान 2017 में माननीय दिल्ली हाई कोर्ट ने मेरे हर दलील को स्वीकार किया. जिसके बाद केंद्र सरकार ने न्यूनतम वेतन में वृद्धि करते हुए 9 हजार से अकुशल कर्मियों का न्यूनतम वेतन 13,936 अर्ध-कुशल कर्मियों के 15418 कुशल कर्मचारियों के लिये 16978 अत्यधिक कुशल यानि स्नातक 18,460 किया गया. इसके बारे में पढ़ें –जनहित याचिका: मांगा समान काम का समान वेतन, मिला नया न्यूनतम वेतन.
ऊपर हमने एक शब्द लिखा है, सिम्पथी यानि सहानुभूति.. एक तरह से सरकार ने मुख्यरूप से सुप्रीम कोर्ट को यह बताने की पुरजोर कोशिश की है कि नियोजित शिक्षकों को उनके योग्यता के हिसाब से ही वेतन दिया जाता है. बिहार सरकार को पटना हाई कोर्ट के आर्डर का पालन करने में मुख्य रूप से वित्तीय परेशानी का सामना करना पड़ेगा.
जहां तक नियोजित शिक्षकों के योग्यता का सवाल है. इसके बारे में हमारी जानकारी के अनुसार बिहार में ट्रेंड टीचर्स की संख्या 92 हजार थी. जिसमें से सुप्रीम कोर्ट के आर्डर के बाद सन 2010 में इसी सरकार ने 34,540 को परमानेंट किया था. जिसके बाद बांकी बचे ट्रेन शिक्षक दुबारा सरकार के बहाली नहीं निकाले जाने के कारण नियोजन पर काम करने को विवश हैं.
इसके साथ ही बिहार सरकार ने नियम के अनुसार सभी नियोजित शिक्षक भी दक्षता परीक्षा पास कर ही सैलरी पा रहें हैं. अब जब कानून के अनुसार और कोर्ट से जीत के बाद अपना वाजिब हक़ मांग रहें तो सरकार खुद ही अपने ही मानक पर सवाल खड़े ही नहीं कर रही बल्कि पुरे सूबे के शिक्षा व्यवस्था पर ही सवालिया निशान खड़े कर रही है. जिसे हमें शर्मनाक कहने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
सभी संघ के अधिवक्ताओं ने नम्र निवेदन करूंगा कि कम से कम वे लोग एक होकर माननीय कोर्ट को उनके पूर्व के फैसला (26 अक्टूबर 2016) का स्मरण करते हुए अपील करें. जिसमे खुद सुप्रीम कोर्ट ने सभी तरह के अस्थायी कर्मचारी भी नियमित कर्मचारियों के समान ही वेतन पाने के हकदार हैं”.
इतना ही नहीं बल्कि कोर्ट ने कहा कि कम पैसे देना दमनकारी है और इससे अस्वैच्छिक दासता थोपी जाती है. इस मामले में हमें यही उम्मीद संघ के शिक्षक नेताओं से भी थी. मगर हमें नहीं लगता कि वो ऐसी परिस्थिति में भी एक हो पायेंगे. अब भले ही एक हो कोर्ट रूम से निकल कर सरकार के खिलाफ लड़ते हुए एक ही बयान देते हैं, मगर अलग-अलग.
सरकार की अपील पूर्णतः खरिज नहीं होती तक तक जीत?
यह मुद्दा बहुत ही बड़ा है, इसलिए होना यह चाहिए था कि सभी 13 याचिकाकर्ताओं को एक साथ मिल बैठकर इस लड़ाई के बारे में मंथन करना चाहिए और 10-12 वकील के जगह 1-2 बड़े नामचीन वकील रखने चाहिए. जो न केवल लाखों शिक्षकों की बात वजन के साथ ही रखें बल्कि जीत कर भी आये. इसमें उनके पैसे भी कम खर्च होते.
हर हाल में शिक्षक की जीत ही होनी है, मगर बिहार सरकार की कोशिश होगी कि तरह-तरह के युक्ति लगाकर हकों में कटौती करे. अभी से जीत का जश्न मनाने की जगह पुरजोर तैयारी में लग जायें. जब तक सरकार की अपील पूर्णतः खरिज नहीं होती तक तक जीत अधूरी है. हम आपकी जीत तभी मानेगे जब भले ही सैलरी 5-10 हजार ही क्यों न बढ़ें मगर इसका लाभ सभी 3.50 लाख नियोजित शिक्षकों को मिले.
अगर किसी कारण सरकार अपनी मंशा नियोजित शिक्षकों के काम योग्यता बताकर कोई परीक्षा की बाध्यता में सफल होती है तो समझ लीजिए की आप हार ही नहीं गए बल्कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व समान वेतन के फैसला (26 अक्टूबर 2016) भी पलटवाने की जिम्मेवारी आपके ही मथ्थे मढ़ा जायेगा. धन्यबाद.
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Such a nice post thanks for this information UP Board 10th Date Sheet 2018
बहुत बहुत धन्यबाद आपका सर, अगर आपके पास भी वर्कर व आमजन से जुड़ा कोई भी जानकारी है तो स्वागत है.