नई दिल्ली: बवाना सेक्टर 5 की एफ 82 फैक्ट्री में शाम को आग लगने से कईं मज़दूरों की ज़िंदा जलकर मौत हो गयी. पुलिस के अनुसार 17 लोगों की मौत हुई है परन्तु मज़दूरों के अनुसार इस फैक्ट्री में करीब 46 लोग काम करते थे. जिनमें से एक आदमी छत से नीचे कूदकर ज़िदा बच पाया है. बाकी लोगों के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
दिल्ली बवाना फैक्ट्री में मौत का तांडव का असली जिम्मेवार
सरकार या व्यवस्था?
दिल्ली बवाना फैक्ट्री में मौत के लिए फैक्ट्री मालिक, श्रम विभाग, पुलिस विभाग और दिल्ली सरकार ज़िम्मेदार है. न तो इस फैक्ट्री पर कोई नंबर लिखा था, न ही मालिक की कोई जानकारी थी, बिना पंजीकरण के इस फैक्ट्री में दिन रात काम चलता था. मुनाफा पीटने के लिए मज़दूरों से भयंकर हालात में काम करवाया जाता है और इस मुनाफे का हिस्सा पाने वाले टुकड़खोर गैर कानूनी उपक्रमों को भी चलने देते हैं. बवाना के आस पास एक राख और धुएं की परत छायी हुयी है, इसमें मज़दूरों के खून की भी राख है. इस हत्या की ज़िम्मेदार समूची पूंजीवादी व्यवस्था है.
यहां छुट्टी के दिन भी काम करवाया जा रहा था. यह फैक्ट्री नहीं बल्कि एक गोदाम था. जहाँ पर पैकिंग का काम होता था. फैक्ट्री के अंदर जले हुए गत्तों को देखकर यह पटाखे की पैकिंग का गोदाम लगता है. मज़दूरों ने बताया कि मृत लोगों में बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं. फैक्ट्री में नीचे एक ही गेट होने के कारण ज्यादातर मजदूर फैक्ट्री के भीतर ही फंसे रह गए.
जब काम चल रहा था तब फैक्ट्री अंदर से बंद थी. यह औद्योगिक दुर्घटना नहीं बल्कि 17 मजदूरों की हत्या है. फैक्ट्री के बाहर मीडिया वाले, पुलिस वाले और नेता आपस दांत निपोरकर बात कर रहे थे. जिनके लिए यह रोज़ाना की घटना है, परन्तु हम मज़दूरों के लिए यह एक आम घटना नहीं बननी चाहिए. इस नर्क को जलाकर राख कर देने में ही हमारी मुक्ति है.
अब बड़ा सवाल आम आदमी पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री – अरविन्द केजरीवाल व मनीष सिसोदिया से है. जो सोशल मीडिया पर अस्पताल और स्कूलों के दौरों की खबरों व विज्ञापनों को प्रचारित करते हैं, लेकिन ये कभी गलती से भी दिल्ली के 29 से ज्यादा औद्योगिक क्षेत्रों में नहीं पहुँचते, जहां मजदूर आधुनिक गुलामों की तरह जेल रूपी कारखानों में काम करते हैं. इस घटना के बाद इलाके से आम आदमी पार्टी के विधायक रामचंद्र भी वहां नहीं पहुंचे.
असल में आम आदमी पार्टी के वजीरपुर के विधायक राजेश गुप्ता से लेकर तमाम भाजपा- कांग्रेस के नेताओं-मंत्रियों की अपनी फैक्ट्रियां है. जहां सरेआम श्रम-कानूनों की धज्जियां उड़ाकर मजदूरों न्यूनतम वेतन से भी कम में तय घण्टों से ज्यादा खटाया जाता है. साथ ही इन फैक्टरियों में न तो उनकी सुरक्षा का कोई इन्तज़ाम होता है और न ही दुर्घटना होने पर बचाव का. जब हादसा हो जाता है तो मुनाफे की हवस में अन्धे मालिक इन मज़दूरों को कारख़ानों के भीतर जलकर मरने के लिए छोड़कर भाग जाते हैं, और प्रशासन और पुलिस मृतकों को गायब करने और उनकी संख्या कम दिखाने में लग जाते हैं.
सरकार घड़ियाली ऑंसू बहाते हुए कुछ मुआवज़ा देने और जाँच बैठाने की घोषणा करके अपना काम ख़त्म कर लेती है.साथियों, बवाना की घटना कोई अकेली घटना नहीं है, बल्कि रोज़ाना हर शहर के कारख़ानों में मज़दूर मुनाफे की बलि चढ़ रहे हैं. रोज़-रोज़ होने वाली मौतों पर हम चुप रहते हैं. यह सोचकर कि ये तो किसी दूसरे शहर में हुई है, या फिर किसी दूसरे कारख़ाने में हुई है, इसमें हमारा क्या सरोकार है. मगर ये मत भूलो कि पूंजीवादी मुनाफाखोरी का यह ख़ूनी खेल जब तक चलता रहेगा तब तक हर मज़दूर मौत के साये में काम करने को मजबूर है.
अगर हम अपने मज़दूर साथियों की इन बेरहम हत्याओं पर इस पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग के ख़िलाफ नफरत से भर नहीं उठते, बग़ावत की आग से दहकते नहीं, तो हमारी आत्मायें मर चुकी हैं, तो हम भी ज़िम्मेदार हैं अपने मज़दूर भाइयों की मौत के लिए — क्योंकि ज़ुर्म को देखकर जो चुप रहता है वह भी मुज़रिम होता है.
साथियो, बवाना के हमारे बेगुनाह मारे गये मज़दूर साथी हमसे पूछ रहे हैं: कब तक हम यूं ही तिल-तिलकर मरने को जीना समझते रहेंगे? कब मिलेगा उन्हें इंसाफ़? कब होगा इस हत्यारी व्यवस्था का ख़ात्मा? क्या हम अपने बच्चों को यही ग़ुलामों-सी ज़िन्दगी देकर जायेंगे? अब यह समझ लेना होगा कि इस आदमख़ोर व्यवस्था की मौत ही हमारे जीने की शर्त है. एकजुट होने और लड़ने में हम जितनी ही देर करेंगे, हमारे चारों ओर मौत का शिकंजा उतना ही कसता जायेगा.
(यह लेख: सनी व् भारत, बिगुल मजदूर दस्ता द्वारा जांच पड़ताल के आधार पर जारी परचा से लिया गया है)
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