Blog –बिहार में विधानसभा चुनाव ने हर किसी के गणित को उलट-पुलट कर रखा दिया है. इस चुनाव ने अच्छे-अच्छे राजनीतिज्ञों के भविष्वाणी ही नहीं फेल की बल्कि देश के प्रधानमंत्री भी अच्छे खासे हतास दिख रहे हैं. उनकी झुंझलाहट उनके मंच से भाषणों में साफ़ देखी जा सकती है. आपको पता हैं ऐसे क्यों हुआ? क्या यह तेजस्वी यादव के 10 लाख नौकरी की घोषणा के कारण हुआ, या इसका साथ और वह कौन सी वजह से जो बिहार के लोगों के द्वारा सत्ता परिवर्तन का संकेत दे रही है. आइये इन सभी सवालों के जवाब ढूढने की कोशिश करते हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि तेजस्वी यादव के 10 लाख नौकरी की घोषणा का युवाओं में क्रेज नहीं है.आपने भी देखा कि पहले तो सुशील मोदी कह रहे थे कि 10 लाख नौकरी देने के लिए पैसा कहाँ से आयेगा? फिर मजबूरन उनकी पार्टी BJP ने भी 19 लाख नौकरी देने की घोषणा कर डाली. यह बात और है कि जनता को अभी तक 2 करोड़ रोजगार का धोखा याद है. इसके साथ ही और भी कई महत्वपूर्ण मुद्दे है. जो इस बार नीतीश सरकार की सत्ता पलट कर सकती है. यह बात बीजेपी को भी भली-भांति समझ में आ गई है. इसलिए तो जनता के सामने चिराग पासवान नामक चारा डाल, नीतीश विरोध करवा कर किसी तरह सत्ता पाने के लिए जीभ लपलपा रही है.
आज समाज के जागरूक लोग चाहे वह किसी भी तबका समुदाय से हों. वह धीरे-धीरे ही सही मगर पढाई के महत्व को समझने लगा है. अब गरीब से गरीब आदमी भी समझने लगा है कि अगर उनका बच्चा पढ़ेगा तो शायद नौकरी लगते ही उसके घर की किस्मत शायद बदल जाए. इसलिए हर कोई शुरू में अपने बच्चे को हैसियत के अनुसार स्कुल भेजता ही है. यह बात और है कि सही माहौल, आर्थिक कमजोरी आदि वजहों से सभी बच्चे आगे नहीं पढ़ पाते. ऐसे अभी Corona के नाम पर पढ़ने वालों की भी पढ़ाई चौपट कर दी गई है.
आपको यह भी याद होगा कि जब कॉंग्रेस सत्ता में थी तो एक बदलाव की आँधी अन्ना हजारे के नेतृत्व में रामलीला मैदान से शुरू हुई थी. जिसके बाद लगा कि देश में क्रांति आकर ही मानेगी. खैर, उस प्रायोजित आंदोलन का परिणाम कहिये या मोदी जी के 15 लाख रूपया और साल में 2 करोड़ नौकरी का वादा, कांग्रेस की सत्ता पलट कर दी. पुरे देश के लोगों को काफी उम्मीद थी कि “अच्छे दिन आयेंगे”. मगर मोदी जी ने सत्ता संभालते ही 2014 में सबसे पहले नौकरी देने के वजाय केंद सरकार के विभागों के भर्ती पर ही रोक लगा दी. इससे भी ज्यादा तब लोगों को निराशा तब हुई. जब देश के प्रधानमंत्री पकौड़ा बेचने को रोजगार में गिनाने लगे. इससे धीरे-धीरे लोगों का मोहभंग होना शुरू हो गया.
यही नहीं बल्कि मोदी सरकार ने धरल्ले से PPP के नीति पर काम करते हुए. सरकारी विभागों में फिक्स टर्म कॉन्ट्रैक्ट को Allow कर दिया. जिसके बाद तो लगभग सभी सरकारी भर्ती ही बंद हो गई. सारे विभागों में ताबड़तोड़ लगातार चलने वाले कामों में ठेका पर वर्कर रखे जाने लगे. इसी दौरान मोदी सरकार ने एक और झटका दिया और नई स्कीम “मल्टी टास्किंग जॉब” भी लॉन्च किया गया. आप पूछियेगा कि यह क्या हैं? दोस्तों, “मल्टी टास्किंग जॉब” मतलब “आदमी एक और काम अनेक”.
जी हाँ, यकीन न आये तो आपके घर के आसपास हाल ही में कोई एसएससी के मार्फ़त “मल्टी टास्किंग पद” पर भर्ती हुआ हो तो पूछ लीजियेगा. उनको ऑफिस में झाड़ू-पोछा, कंप्यूटर ऑपरेटिंग, चाय बनाने, साहब के टेबुल पर फाइल पहुंचाने से लेकर रात को चौकीदारी का काम भी करना पड़ता हैं. एक तरह से देखें तो आदमी के आदमी के द्वारा शोषण का जितना भी फार्मूला हो सकता हैं. इस सरकार ने दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार में किए.
एक कहावत तो आपने जरूर सुनी होगी. शादी का लड्डू जो खाये वो पछताये और जो ना खाये वो ललचाये. बस यह समझाने के लिए बता रहे हैं. आप इसको अन्यथा मत लीजियेगा. तो हम Job की बात कर रहे थे. जी, बिलकुल मोदी सरकार में जिसको नौकरी नहीं मिल रही वह भी परेशान और जिस तरह से कॉर्पोरेट के पक्ष में श्रम कानूनों में बदलाव से जिनको नौकरी मिल गई. वो नौकरी से परेशान. सच पूछिए तो आदमी के साथ मशीन के जैसे व्यवहार किये जाने लगा. मगर इंसान तो इंसान ही होता है. एक सीमा तक ही गुब्बारे की तरह इंसान पर भी दबाव डाल सकते हैं. अगर दबाव बढ़ेगा तो एक दिन फटेगा जरूर.
मैंने खुद 2013 में ठेका वर्करों के लिए “समान काम का समान वेतन” की मांग उठाई और नौकरी से बाहर निकाल दिया गया. जब बात खड़गे साहब रेलमंत्री तक पहुँची, तुरंत ही वापस लेने का आदेश दिया गया. मगर उसी के 2 दिन बाद आचार संहिता लग गया, मामला Pending रह गया. लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी की सरकार आई. जिसके बाद भी दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका के माध्यम से देश के केंद्रीय ठेका वर्कर का न्यूनतम वेतन “समान वेतन” की जगह कम से कम 42 फीसदी बढ़वाने में सफल हुआ. जो कि हालाँकि काफी कम है मगर फिर भी बांकी राज्यों से सम्मानजनक वेतन है.
इस दौरान एक और धमाका हो गया. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 26 अक्टूबर 2016 को ठेका वर्कर के लिए ऐतिहासिक “समान काम का समान वेतन” का फैसला दे दिया. जिनसे पुरे देश में इंटरनेट और शोशल मिडिया के माध्यम से सनसनी फैला दी. अभी तक जो लोग यह कह रहे थे कि ठेका वर्कर को नियमित वर्कर के “समान वेतन” कैसे मिल सकता है? उनका मुँह बकरे जैसे बन गया.
इसके बाद से ही हर राज्य, हर विभाग के ठेका वर्कर “समान काम का समान वेतन” की मांग उठाने लगे. हम ऐसे कतई नहीं कह रहे कि पहले मांग नहीं उठाई जा रही थी. मगर जैसे कि ऊपर बताया गया. सभी लोगों की इसकी जानकारी नहीं थी. इसके साथ ही लोग इस पर लोग कम यकीन करते और तो और मुझ तो कई लोगों ने पीठ पीछे पागल तक कह दिया था.
इस तरह से लोगों के मन में मालिक/कंपनी के द्वारा बैठा दिया जाता था कि अगर “समान वेतन” ही देना था तो तुम्हे ठेका पर रखा ही क्यों था. जबकि फंडा बिलकुल उल्टा था. जब “आप नियमित वर्कर के बराबर काम करवाएंगे तो आपको उनके बराबर सैलरी देनी पड़ेगी”. यह ठेका अधिनियम 1970 के Rules में ही लिखा है. खैर, माननीय सुप्रीम कोर्ट के 26 अक्टूबर 2016 के फैसले ठेका वर्कर को एक संजीवनी सी दे दी.
अब चूँकि हम “बिहार चुनाव 2020” की बात कर रहे हैं तो बिहार के टॉपिक पर ही बात करेंगे. बिहार में 4 लाख से भी ज्यादा नियोजित शिक्षकों के पक्ष में एक फैसला आया. जिसमें पटना हाईकोर्ट ने सभी को 2009 से “समान काम का समान वेतन” एरियर सहित देने का आदेश दिया. जिसको नीतीश सरकार और मोदी सरकार ने मिलकर न केवल सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती दी, बल्कि अपने सुप्रीम कोर्ट के हलफनामे में अयोग्य तक बता दिया. जो कही न कहीं उनकी शिक्षा नीति पर ही सवाल खड़ा करती है. जब ये नियोजित शिक्षक अयोग्य थे तो से आप इनसे ऐसे सेवाएं ही क्यों ले रहे थे? यूँ कहिए, जब काम करवा रहे तो अच्छे लग रहे थे और जब अपना हक मांग दिया तो “बिना काम का” बता दिया. क्या इस तरह की नीति के साथ सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, जब सरकार ही शोषण करने लगे?
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट के आदेश को ख़ारिज कर दिया. जिसके बाद से ही बिहार में नियोजित शिक्षकों के द्वारा नीतीश सरकार का विरोध शुरू हो गया. गर्दनीबाद प्रदर्शन में नियोजित शिक्षकों पर लाठचार्ज ने आग में घी का काम किया. उसी समय से शिक्षकों ने नीतीश सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रण कर लिया था.
अगर इस पोस्ट में बेरोजगारों की चर्चा न हो तो यह आर्टिकल अधूरा ही रह जायेगा. सबसे ज्यादा नौकरी के नाम पर युवा बेरोजगारों के साथ ही ज्यादा छल किया गया है. आपको रेलवे फोर्थ ग्रेड भर्ती तो याद होगा. अभी भी लोग जोइनिंग का इन्तजार कर रहे हैं. उनके साथ ही 2018 में ही दिल्ली में SSC पेपर लीक के विरोध में एसएससी Office के बाहर परीक्षा रद्द करवाने की मांग के लिए विरोध प्रदर्शन याद तो होगा. जिसके बाद भी सरकार अपने फैसले पर अडिग रही और छात्र डटे रहे. आखिरकार उनको तानाशाही तरीके से प्रदर्शन से हटा दिया गया.
सरकारी चपराशी की भर्ती में एमबीए एमसीए को तो छोड़िये. राजस्थान में एक विधायक जी का बेटा चपराशी के पद पर नियुक्त हुआ. ऐसे उनके बेटे रामकिशन की न्युक्ति चयन बोर्ड के इंटरव्यू के आधार पर हुआ थी. मगर इसकी जाँच की मांग उठी थी.
आपको शायद याद न हो तो, याद दिला दूँ. हमारे देश का संविधान में लोकतंत्र “जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन” है. जिसके अनुसार हर 5 साल पूरा होने पर चुनाव की व्यवस्था दी गई है. इसके मतलब हर 5 साल जनता के पास वोट मांगने जाना ही है. जब आप जनता कि बात/मांग नहीं सुनेंगे तो आखिर जनता से कैसे नजर मिलायेंगे? आज यही हाल बिहार में हो रहा है. सत्तारूढ़ दल के किसी नेता में इतनी हिम्मत ही नहीं किसी गाँव में जाकर जनता से मिलकर वोट मांग ले. बिहार की जनता ने बिलकुल ही सही समय पर विरोध शुरू कर दिया है.
देश में कोरोना महामारी के 500 केस में अचानक से लॉकडाउन किया गया. जिसके बाद देश मजदुर खासकर यूपी, बिहार के मजदुरों ने 1500 से 2000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की. वो भी अपनी जान बचाने के लिए भूख-प्यासे नंगे पांव और ऊपर से पुलिस की लाठी खाते कुछ तो घर पहुँच गए. उस समय भले ही इनकी सहायता के लिए सरकार के पास बस नहीं थे. मगर आज आपको सैंकड़ों प्रचार गाड़ियाँ, जन-सभायें और मुर्गा-रोटी का व्यवस्था दिख जायेगी. उनको आपके वोट जो लेना है. अब ऐसे में किसी को कोरोना नहीं हो रहा. सरकार को तो इतनी भी जानकारी नहीं हैं कि कितने लोग Lockdown में रास्ते में मारे गए.
खैर, जो काम जनता को विपक्ष नहीं समझा पाई. वह काम “कोरोना” ने कर दिया. बिहार के लोग कुछ नहीं भूले और अब तो खुलेआम कह रहे कि “कोरोना तो साधारण सर्दी खांसी है”. इसके साथ ही महागठबंधन के तरफ से तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरी, समान काम का समान वेतन, ठेका वर्कर को पक्का करना, आशा, आंगनवाड़ी, जीविका पेंशन आदि की घोषणा ने धूम मचा दी.
इतना ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार अब तो सरकारी विभाग की निजी हाथों में देने जा रही है. जिससे एक तरह से indirect रुप से पिछड़े, दलितों गरीब कुचले के आरक्षण पर ही हमला है. अब आपकी आने वाली पीढ़ी 7-8 मासिक हजार रुपया में उसी रेल में नौकरी के नाम पर गुलामी करेगा जो आपके पूर्वजों के जमीन और आपके टेक्स के पैसों से खड़ी की गई है.
अब यह तो समय ही बतायेगा कि सरकार किसकी बनेगी. मगर इतना तो तय है कि नीतीश कुमार की कुर्सी खिसक चुकी है. एक तरह से यह बदलाव जनता के लिए अच्छे संकेत है कि आज चुनाव में आप युवा मजदुर के असली मुद्दे की बात हो रही है. आप बस इसी तरह से नेताओं को औकात दिखाते रहिए तो उनको भी झख मारकर बदलना पड़ेगा. आपको मंदिर मस्जिद के मुद्दों में उलझाकर रोटी सेंकने की दूकान बंद हो जायेगी. जिसके बाद आपके असल मुद्दे रोजगार, शिक्षा, रोटी, कपडा और मकान की बात होगी. “पढ़ेगा इंडिया तभी तो आगे बढ़ेगा इंडिया”. जय हिन्द.
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